Thursday, September 1, 2011

आत्म सूत्र

एकाग्रता

महाभारत में यह कथा है कि द्रोणाचार्य ने अपने शिष्यों के लिए एक परीक्षा का आयोजन किया। उन्होंने अपने सभी शिष्यों को चिड़िया की आँख पर निशाना लगाने के लिये कहा। प्रत्येक धनुर्धारी के आने पर उन्होंने पूछा, “तुम क्या देख रहे हो ?” एक शिष्य को पेड़ दिखाई दिया, दूसरे ने शाखाएं देखीं, कुछ ने केवल चिड़िया को देखा। इस प्रकार भिन्न उत्तर प्राप्त हुए । उन्होंने किसी को भी बाण छोड़ने की अनुमति नहीं दी। अर्जुन ने कहा, “उसे सिर्फ चिड़िया की आँख दिखाई दे रही है।और इस प्रकार केवल अर्जुन ही परीक्षा में उत्तीर्ण रहा।

किसी लक्ष्य के प्रति पूर्णरूपेण ध्यान देना ही एकाग्रता है। एकाग्र मन किसी अन्य मानसिक गतिविधि में व्यस्त नहीं हो सकता। एकाग्रता का अर्थ है अपनी संपूर्ण ऊर्जा और मन को इच्छित दिशा में केन्द्रित करना। मनोयोग, एकाग्रता की कुंजी हैं। मन को एक दिशा में, एक ही कार्य में व्यस्त करना एकाग्रता है। ध्यान व एकाग्रता से मानसिक शक्ति को बढ़ाया जा सकता है ओर उसका उपयोग किया जा सकता है ।

एकाग्रता के बिना मन को केन्द्रित नहीं किया जा सकता । जब मन की शक्ति बिखरी हुई होती है तो आप इसे सफलता की दिशा में प्रयुक्त नहीं कर सकते। अर्थात् मन की शक्ति, ध्यान की शक्ति में निहित है। बुद्धि, विश्लेषण, चिन्तन, कल्पना, अभिव्यक्ति, लेखन एवं भाषण आदि की शक्ति को एकाग्रता द्वारा ही विकसित किया जा सकता है । एकाग्रता की शक्ति आपकी योग्यता एवं कुशलता को बढ़ाती है । एकाग्रता से द्वन्द्व, उलझनंे, घबराहट एवं तनाव कम होते हैं।

वह व्यक्ति, जो समस्या के साथ खाता है, समस्या के साथ चलता है, समस्या के साथ सोता है, वह समस्या का समाधान ढूँढ लेता है।

ईश्वर भक्ति

जो मनुष्य भगवान की नि:स्वार्थ सेवा करता है, उसके हृदय में दया प्रेम का वास होता है। प्रत्येक मनुष्य में सरलता का भाव होना चाहिए। सरलता से कठिन से कठिन कार्य सहज हो जाते हैं। भगवान राम के चरित्र का किया गया वर्णन शास्त्री जी ने श्री नर्मदा पुराण कथा में भगवान के राम के चरित्र का वर्णन करते हुए कहा कि भगवान राम अखण्ड ब्रह्माण्ड के अधिपति होते हुए भी कितने सरल स्वभाव के थे। वह हर मनुष्य से सहज, सरल भाव से मिलते थे। रामचरित मानस में शबरी के चरित्र का वर्णन करते हुए कहा कि शबरी एक भील कन्या थी, परन्तु सरल भाव से ईश्वर भक्ति करने से ईश्वर को प्राप्त कर देव मय हो गई थी। प्रत्येक मनुष्य के लिए ईश्वर भक्ति सर्वश्रेष्ठ मानी गई, क्योंकि ईश्वर भक्ति ही नर को नारायण बना देती है। सच्ची भक्ति से प्रभु को प्राप्त किया जा सकता है। भगवान की कृपा भक्तों पर हमेशा बनी रहती है। मनुष्य ज्यों-ज्यों भगवान की भक्ति में लीन होता है, वह भगवान के प्रति समर्पित होता जाता है, तब भक्त और भगवान एक हो जाते हैं। इसका पुराणों, शास्त्रों, श्रीमद् भागवत गीता में उल्लेख है।

मनोबल

मनुष्य और उसकी महान शक्ति

परमाणु शक्ति के सम्बन्ध में आधुनिक वैज्ञानिकों का कथन है कि जब उसकी सम्पूर्ण जानकारी मनुष्य को हो जायेगी तो सारे ग्रह, नक्षत्रों की दूरी ऐसी हो जाएगी जैसे पृथ्वी पर एक गाँव से दूसरा गाँव, किन्तु इसकी जानकारी का भी अधिष्ठाता मनुष्य है, अतः उसकी शक्ति का अनुमान लगाना भी असम्भव है। मनुष्य में वह सारी शक्तियाँ विद्यमान हैं जिनसे इस संसार का विनाश भी हो सकता है और निर्माण तो इतना अधिक हो सकता है कि उसका एक छोटा-सा रूप इस सुरम्य धरती को भी देख सकते है।

मनुष्य विधाता की रचना का सर्वश्रेष्ठ चमत्कारिक प्राणी है। अव्यवस्थित धरती को सुव्यवस्थित रूप देने का श्रेय उसे ही प्राप्त है। ज्ञान, विज्ञान, भाषा, लिपि, स्वर आदि की जो विशेषताएं उसे प्राप्त हैं, उनसे निःसन्देह उनकी महत्ता की प्रतिपादिता होती है। मनुष्य इस संसार का समग्र सम्पन्न प्राणी है। महर्षि व्यास ने इस सम्बन्ध में अपना मत व्यक्त करते हुए लिखा है-

गुह्म ब्रह्म तदिदं बवीमि नहिं मानुषात् श्रेष्ठतरं हि किंचित।।

‘‘मैं बड़े भेद की बात तुम्हें बताता हूँ कि मनुष्य से बढ़कर इस संसार में कोई भी नहीं है।’’ वह सर्वशक्ति-सम्पन्न है। जहां चाहे उलट-फेर कर दे, जहां चाहे युद्ध-मारकाट मचा दे। जी में आये तो शान्ति और सुव्यवस्था स्थापित कर दे। कोई भी कार्य ऐसा नहीं जो मनुष्य की सामर्थ्य से बाहर हो। धन, पद, यश आदि कोई वैभव ऐसा नहीं जिसे वह प्राप्त कर सकता हो। भगवान राम और कृष्ण भी मनुष्य ही थे, किन्तु उन्होंने अपनी शक्तियों का किया और नर से नारायण बनकर विश्व में पूजे जाने लगे। मनुष्य अपने पौरुष से-विद्या बुद्धि और बल से वैभव प्राप्त कर सकता है उसकी शक्ति से परे इस संसार में कुछ भी तो नहीं है। शास्त्रकार का कथन है ‘‘यदब्रह्माण्डे तत्पिण्डे’’ अर्थात् जो कुछ भी इस संसार में दिखाई देता है वह सभी बीज रूप से मनुष्य के शरीर में, पिण्ड में विद्यमान है।

जीवन या जीवनी-शक्ति का बाहुल्य ही मनुष्य को प्राणवान, स्फूर्तिवान, ओजस्वी, प्रतिभाशाली बनाता है। साहस, पराक्रम, उत्साह और स्फूर्ति का समन्वय ही जीवट के रूप में जाना जाता है। यदि यह हो तो सामान्य काया भी कम समय में ऊँचे स्तर के कार्य सम्पन्न कर सकती है। शरीरगत तत्परता एवं मनोगत तत्परता का जहाँ योग होता है, वहां व्यक्तित्व में चमत्कारी जादुई जीवन उभर कर आ जाती है एवं यही बाह्म जीवन की सारी सफलताओं की मूल धुरी कहलाती है। इसी जीवट के अभाव में एक बलिष्ठ-सा दीखने वाला व्यक्ति भी भद्दा मोटा अजगर बनकर ज्यों-त्यों जीवन गुजारता हुआ समय काटकर धरती से चला जाता है। ओजस्विता के बीजांकुर वस्तुतः हर किसी के अंतराल में हैं, आवश्यकता उन्हें जाने भर की है।
मनोबल, संकल्प-शक्ति, इच्छाशक्ति, साहस, पराक्रम-पुरुषार्थ सभी जिस एक गंगोत्री से निकलते एवं किसी व्यक्ति के प्रभावशाली आकर्षंण तेजोवलय या आभामण्डल के रूप में दीखते हैं, वह उसके अन्दर ही विचारों की विधेयात्मक सामर्थ्य के रूप में विद्यमान है। इन्हीं सब पक्षों पर उस खण्ड में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। इसी खण्ड में व्यवस्था बुद्धि की गरिमा एवं आकृति से मनुष्य की पहचान विषय को भी समाविष्ट किया गया है।

वस्तुतः जीवन जीने की कला का पारखी मनुष्य यदि श्रद्धामयोऽयं पुरुषः यो यच्छुद्धः स एव साःका मूल भाव समझ ले तो उसे किसी प्रकार कि कठिनाई जीवन व्यापार में नहीं होगी। मनुष्य जैसा चिन्तन व दृढ़ निश्चय करता है, वह वैसा ही बनता चला जाता है, यह आज तक का इतिहास बताता है। हम सदा ही प्रखर इच्छाशक्ति का संपादन कर स्वयं को मनस्वी, तेजस्वी एवं प्रखर बनाए रखें तो लौकिक एवं पारलौकिक सभी सफलताएं हमारे कदमों पर होंगी, मनोविज्ञान का यह मूल मर्म जो व्यावहारिक भी है, इस खण्ड में विस्तार से पढ़ा जा सकता है।

जीवन जीने की कला

तुमने कभी सोचा है कि जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या है यह जीवन? इस तरह के प्रश्न बहुत कीमती हैं। जब इस तरह के प्रश्न मन में जाग उठते हैं तभी सही मायने में जीवन शुरू होता है। ये प्रश्न तुम्हारी जिंदगी की गुणवत्ता को बेहतर बनाते हैं। ये प्रश्न वे साधन हैं जिनसे तुम अंत:करण में और गहरी डुबकी लगा सकते हो और जवाब तुम्हारे अंदर अपने आप उभर आएंगे। जब एक बार ये प्रश्न तुम्हारे जीवन में उठने लगते हैं, तब तुम सही मायने में जीवन जीने लग जाते हो।


अगर तुम जानना चाहते हो कि इस धरती पर तुम किसलिए आए हो तो पहले यह पता लगाआ॓ कि यहां किसलिए नहीं आए हो। तुम यहां शिकायत करने नहीं आए हो, अपने दुखड़े रोने नहीं आए हो या किसी पर दोष लगाने के लिए नहीं आए हो! ना ही तुम नफरत करने के लिए आए हो। ये बातें तुम्हें जीवन में हर हाल में खुश रहना सिखाती हैं। उत्साह जीवन का स्वभाव है। दूसरों की प्रशंसा करने का और उनके उत्साह को प्रोत्साहन देने का मौका कभी मत छोड़ो। इससे जीवन रसीला हो जाता है। जो कुछ तुम पकड़ कर बैठे हो उसे जब छोड़ देते हो, और स्वकेंद्र में स्थित शांत हो कर बैठ जाते हो तो समझ लो तुम्हारे जीवन में जो भी आनंद आता है, वह अंदर की गहराइयों से आएगा।


सारा दिन यदि तुम सिर्फ जानकारी इकट्ठा करने में लगे रहते हो, अपने बारे में सोचने और चिंतन के लिए समय नहीं निकालते तो तुम जड़ता और थकान महसूस करने लगोगे। इससे जीवन की गुणवत्ता बदतर होती चली जाएगी। तो दिन में कुछ पल अपने लिए निकाल लिया करो। कुछ मिनटों के लिए आंखें बंद कर बैठो और दिल की गहराइयों में उतरो। जब तुम खुद अंदर से शांत और आनंदित होंगे, तभी तुम इनको बाहरी दुनिया के साथ बांट सकोगे। ज्यादा मुस्कुराना सीखो। हर रोज सुबह आईने में देखो और अपने आप को एक अच्छी-सी मुस्कान दो। जब तुम मुस्कुराते हो तो तुम्हारे चेहरे की सभी मांस पेशियों को आराम मिलता है। दिमाग के तंतुओं को आराम मिलता है और इससे तुम्हें जीवन में आगे बढ़ते रहने का आत्मविश्वास, हिम्मत और शक्ति मिलती है।


जीवन में हमेशा बांटने, सीखने और सिखाने के लिए कुछ न कुछ होता ही है। सीखने के लिए हमेशा तैयार रहो। अपने आप को सीमित मत करो। दूसरों के साथ बातचीत करो, अपने विचार, अपनी बातें उन्हें बताआ॓ और उनसे कुछ जानो। हम सब यहां कुछ अद्भुत और विशष्टि करने के लिए पैदा हुए हैं। यह मौका गवां मत देना। तुम्हें अपने कम और लंबे समय के लक्ष्य तय कर लेने चाहिए। ऐसा करने से जीवन को बहने के लिए दिशा मिल जाती है। अपने आपको आजादी दो- सपने देखने और सचमुच कुछ बड़ा सोचने की। और वो सपने जो तुम्हारे दिल के करीब हैं, उन्हें साकार करने की हिम्मत और संकल्प करो। बिना उद्देश्य के जीवित रहने के बजाए जीवन को सही मायने में जीना शुरू करो। तब तुम्हारा जीवन मधुर सपने की तरह हो जाएगा।

अनासक्ति

हम जीवन में अनेक बार ऐसे निर्णय ले लेते हैं, जो कभी-कभी गलत साबित हो जाते हैं। इसलिए कोई भी काम करें, उसके मूल में आसक्तिकी जगह निष्कामता लाएं। क्रिया बुरी नहीं है, बुरी है क्रिया के पीछे की नीयत।

जीवन में कभी-कभी हम अच्छे संकल्प लेते हैं, लेकिन वे पूरे नहीं हो पाते। असफलता का कारण हम भाग्य और भगवान में देखते हैं। लेकिन जरूरी यह है कि पहले अपने ही भीतर उस कारण को खोजा जाए। एक उदाहरण से समझें। राजा दशरथ ने संकल्प लिया था कि सिंहासन पर राम को आसीन करेंगे, किंतु ऐसा हो नहीं सका। इसका कारण है दशरथ के चरित्र में वैराग्य की कमी। उनके जीवन में धर्म, सत्कर्म है, किंतु वैराग्य नहीं है। वे क्रिया के प्रति आसक्त हैं। रामराज्य की घोषणा करने के बाद, एक रात बाकी थी। दशरथ के सामने प्रश्न यह था कि वह रात किस रानी के महल में गुजारें। उनके स्वभाव में जो आसक्ति है, बस वह सामने आ गई।

वे कैकेयी के महल में गए। कैकेयी क्रिया का, कौशल्या ज्ञान और सुमित्रा उपासना की प्रतीक हैं। यदि वे कौशल्या या सुमित्रा के महल में जाते तो यह नौबत नहीं आती। दृश्य यह बना कि जब वे कैकेयी के महल में गए और कैकेयी ने वरदान मांगा, तब दशरथ के मन में वैराग्य उत्पन्न हुआ। कैकेयी के प्रति उनका जो मोह था, उसके कारण वे अपना संकल्प पूरा नहीं कर पाए। यह सभी के जीवन का सत्य है। हम रामराज्य यानी हृदय के सिंहासन पर राम को बैठाना तो चाहते हैं, लेकिन क्रिया की आसक्ति से जुड़ जाते हैं। हम जीवन में कई बार ऐसे निर्णय ले लेते हैं, जो गलत साबित हो जाते हैं। इसलिए कोई भी काम करें उसके मूल में आसक्ति की जगह निष्कामता लाएं। क्रिया बुरी नहीं है, बुरी है क्रिया के पीछे की नीयत।

ध्यान

कुछ संयोग जीवन को और भी सुंदर बना देते हैं। जैसे धर्य के साथ आशा को बनाए रखना। देखा गया है कि कुछ लोग मजबूरी को धर्य समझ लेते हैं, वहीं अधिकांश ने तो अपने आलस्य को ही धर्य की संज्ञा दे रखी है। अधीर लोग जल्दी उदास हो जाते हैं। ध्यान रखिए, उदासी भी पागलपन के शुरुआत की हल्की-सी थाप है, पहली कड़ी है। पूरे पागलपन का तो फिर भी इलाज संभव है, पर आधे पागलपन का क्या करेंगे? इस अर्ध स्थिति का इलाज दुनियाभर के मनोचिकित्सक भी नहीं कर सकते। हां, इसका इलाज एकमात्र इलाज अध्यात्म के पास है।

मन के पार होने की कला सीख जाइए। यह भी धर्य से आएगी। इसके लिए ध्यान की क्रिया काम आएगी। ध्यान लगा या नहीं, इस पर ज्यादा जोर न दें। इसमें परिणाम से अधिक क्रिया महत्वपूर्ण है। बस इतना काफी है कि आप ध्यान की क्रिया भर करें। धर्य से ध्यान करें, फिर ध्यान से धर्य उपजेगा, यह एक कड़ी की तरह है। इससे वह और उससे यह पा जाना ही ध्यान तथा धर्य होगा। अपने धर्य को फिर आशा से जोड़ दें।

आशा बनाए रखें कि जीवन में जो भी महान है, वह मिलकर रहेगा। नवरात्र में एक बात तय कर लें, वर्षभर विकास और प्रगति की जो छलांग आपको लगानी है, उसका आधार ध्यान यानी मेडिटेशन रहे। धर्य और आशा की मजबूत जमीन से उछला हुआ मनुष्य हर उस आसमान को मुट्ठी में भर सकेगा, जिसे संसार ने सफलता का नाम दिया है।

मौन

अध्यात्म में एक प्यारा शब्द है आत्मानुभव। यह एक स्थिति है। यहां पहुंचते ही मनुष्य में साधुता, सरलता, सहजता और समन्वय की खूबियां जाग जाती हैं। नवरात्र में बहुत से लोग मौन धारण करते हैं। आत्मानुभव के लिए मौन एक सरल सीढ़ी है। भीतर घटा मौन बाहर वाणी के नियंत्रण के लिए बड़ा उपयोगी है। जैसे ही वाणी नियंत्रित होती है, हम दूसरों के प्रति प्रतिकूल शब्द फेंकना बंद कर देते हैं। शब्द भी भीतर से उछाल लेते हैं और बाहर आकर निंदा के रूप में बिखरते हैं। ऐसे शब्दों का रुख अपनी ओर मोड़ दें, अपने ही विरोध में कहे गए शब्द आत्म-विश्लेषण का मौका देंगे। जितना सटीक आत्म-विश्लेषण होगा, उतना ही अच्छा आत्मानुभव रहेगा। मन को आत्म-विश्लेषण करना नापसंद है, इसलिए वह हमेशा अपने भीतर भीड़ भरे रखता है।

विचारों की भीड़, मन को प्रिय है। फिर विचारों की भीड़ तो इंसानों की बेकाबू भीड़ से भी ज्यादा खतरनाक होती है। ऐसा भीड़ भरा मन मनुष्य के भीतर से तीन बातों को सोख लेता है - प्रेम, चेतना और जीवन। प्रेमहीन व्यक्ति सिर्फ स्वार्थ और हिंसा के निकट ही जिएगा। चेतना को तो भीड़ भरा मन जाग्रत ही नहीं होने देता। भीतर इतना शोर होता है कि इस विचार-भीड़ की चेतना की आवाज ही सुनाई नहीं देती। यहीं से एक बे-होश व्यक्ति जीवन चलाने लगता है। दरअसल हमारा जीवन एक कृत्य न होकर धक्का भर है। होश में आने के लिए नवरात्र से अच्छा समय नहीं मिलेगा।

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